Dattatreya vajra panjar kavach | श्रीदत्तात्रेयवज्रपंजर-कवचम्

श्रीदत्तात्रेयवज्रपंजर-कवचम् || Dattatreya vajra panjar kavach.

 

‘कवच’ का अर्थ है:-

‘देविय ! भाव ( शक्ति ) को स्वयं में ग्रहण करना तथा पूरे शरीर के अवयवों में देवता के विभिन्न नामों द्वारा न्यास करके स्वयं को देवरूप बनाना ।’ कुत्सित भावनाओं और अनिष्टकारी परिणामों से सुरक्षा के लिये ‘कवच’ से बढ़कर अन्य कोई सरल उपाय नहीं है ।

कवचरूप स्तोत्र की रचना में बीजमन्त्र, मन्त्र, यन्त्र तन्त्र एवं देवता के विशिष्ट नामों के स्मरण से प्रार्थना भी रहती है । अतः उपासक को सर्वविध रक्षा के लिये जप अथवा अन्य साधना-सम्बन्धी कर्मों से पूर्व ‘कवच’ का पाठ करना चाहिये।

कवच सिद्धि की विधि:-

तन्त्रों में कवच : पाठ को सिद्ध करने के लिये बताया गया है कि- किसी शुद्ध व एकान्त स्थान में उत्तर की ओर मुख करके लाल अथवा केसरिया दो आसन बिछाकर करें।

एक आसन खाली छोड़ कर दूसरे पर बैठना चाहिये । अपने सामने एक चौकी पर थाली में कुंकुम अथवा केशरिया चन्दन से त्रिकोण बनाकर उसे पूर्वमुख खड़े रूप में रख दे ।

यह चौकी साधक के बाँयें हाथ की ओर रहे । यन्त्र की (गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य ) पाँच उपचारों से पूजा करे । चढाये गये नैवेद्य का एक भाग यन्त्र के समक्ष और एक भाग खाली आसन के सामने किसी पटरे पर अन्य पात्र में रखे ।

वस्त्र विचार

जप – काल में धारण करने का वस्त्र लाल रंग का हो, वह ऊनी हो तो पहले दिन धोकर पहनें और सूती हो, तो प्रतिदिन धोकर शुद्ध करें | उन्हें कोई अन्य स्पर्श न करे ।

संकल्प विधि

प्रतिदिन कवच का पाठ 21 बार 40 दिन तक नियमित रूप से करें । शुभ मुहूर्त देखकर पाठ आरम्भ करें तब संकल्प करें ।

संकल्प मंत्र

“अद्येत्यादि० अमुक गोत्रोहं, अमुकनामाहं मम
(अमुक) देवताप्रीत्यर्थं अद्यारभ्य चत्वारिंशद् दिन
पर्यन्त प्रत्यहं एक विंशति‌ संख्यया…..कवच पाठान् करिष्ये ।”

इस प्रकार पहले दिन संकल्प कर लें । पाठ के समय कवच के आरम्भ में ॐ तथा अन्त में ॐ लगायें । 21 पाठ पूर्ण होने पर पाठ समर्पण करके यन्त्र के सामने रखा नैवेद्य कन्याओं को और आसन के सामने रखा नैवेद्य सौभाग्यवती स्त्री को दें ।

पाठ के नियम

पाठ के 40 दिनों में ब्रह्मचर्य, भूमि पर शयन, क्षौर न करना आदि व्रत के नियमों का पालन आवश्यक है। यह पाठ चल रहा हो उन दिनों में वार के दिन एक कुमारी को पूछ कर उसकी रुचि के अनुसार भोजन कराना ।

हवन की विधि

40 दिन के पाठ पूरे होने पर विधिपूर्वक दशांश हवन करना, जिसमें बिल्वपत्र को त्रिमधु (शहद, घृत और दूध) में डुबोकर आहुति दें |

बाद में दशांश तर्पण, दशांश मार्जन और दशांश ब्राह्मण भोजन करायें । यह कवच के पुरश्चरण का विधान है ।

अन्य विधि

इसी प्रकार एक अन्य विधान यह भी मिलता है कि कवच पाठ में जितने पद्य हों, उतने दिनों तक प्रतिदिन उतने ही पाठ करें ।

कवच के विशेष प्रयोग कवच – पाठ की फलश्रुति में लिखे रहते हैं और वहीं उनके विधान भी बताये हुए मिलते हैं।

उनकी सफलता के लिये उपर्युक्त पुरश्चरण विधि कर लेना अत्यावश्यक है ।

श्रीदत्तात्रेयवज्रपंजर-कवचम्

 

श्रीपार्वत्युवाच

  • देवाधिदेव सर्वज्ञ सर्वलोकहिताय वै ।
    दत्तात्रेयस्य कवचं वज्रपंजरकं वद ।
    यस्य स्मरणमात्रेण वज्रकायो भवेन्नरः।।

श्रीसदाशिव उवाच

  • गुयाद्गुह्यतरं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
    पंजरं वज्रकवचं गोपनीयं स्वयोनिवत्।।

विनियोग :-

अस्य श्रीदत्तात्रेय वज्रपंजरकवचस्य किरातरूपी महादेव ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीदत्तात्रेयो देवता ॐ औं बीजं ॐ ह्रीं शक्तिः

ॐ क्रीं कीलकं मम चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः ।

दिशा प्रणाम

ॐ नमो गुरवे । ॐ नमः (पूर्वे) । ॐ ह्रीं नमः (आग्नेय्याम्) । ॐ क्रों नमः (दक्षिणे) । ॐ दं नमः (नैऋत्ये) । ॐ त्तां नमः (पश्चिमे ) ।

ॐ नमः (वायव्ये) । ॐ यां नमः (उत्तरे) । ॐ यं नमः (ईशाने) । ॐ नं नमः (ऊर्ध्वे) । ॐ मं नमः (पाताले) ।

इस प्रकार ‘दिशान्यास’ करके यथाशक्ति-

“ॐ आं ह्रीं क्रों दत्तात्रेयाय नमः”

इस मन्त्र का जप करें। तत्पश्चात् जप- समर्पण करके प्रार्थना

श्रीदत्तात्रेयवज्रपंजर-कवचम् आरंभ

  • ॐ दत्तात्रेयः शिरः पातु सहस्रारुब्जसंस्थितः ।
    भालंपात्वानुसूयेयश्चन्द्रमण्डल-मध्यगः ।। 1 ।।
  • कूर्च मनोमयः पातु भ्रुवौ द्वौ दत्तपद्मभूः ।
    ज्योतिरूपोऽक्षिणी पातु पातु शब्दात्मकः श्रुती ।। 2 ।।
  • नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मकः ।
    जिह्वां देवात्मकः पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिकः ।। 3 ।।
  • कपोलावत्रिभूः पातु चिबुकेवतु चात्मवित् ।
    स्वरात्मा षोडशारे सुस्थितोऽवतु मां हलात् ।। 4 ।।
  • स्कन्धौ चन्द्रानुजः पातु भुजौ पातु क्रतूद्वहः ।
    अन्त्राणि शत्रुजित् पातु पातु क्क्षःस्थले हरिः ।। 5 ।।
  • कादिठान्तो द्वादशारे पद्मगो मरुदात्मकः ।
    योगीश्वरेश्वरः पातु हृदयं हृदये स्थितः ।। 6 ।।
  • पाश्वौं हरिः पार्श्ववर्ती पातु पार्श्व स्थिताश्च ये ।
    हठयोगादियोगज्ञः कक्षिं पातु कृपानिधिः ।। 7 ।।
  • डकारादि-फकारान्तं दशार-सरसीरुहे ।
    नाभिस्थितो वर्तमानो नाभिं वहन्यात्मकोऽवतु ।। 8 ।।
  • बुद्धः कर्टि कटिस्थ ब्रह्माण्डे वासुदेवात्मकः ।
    बकारादि-लकारान्त षड्दलाम्बुज-बोधकः ।। 9 ।।
  • जलतत्त्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूर्वकान् ।
    वादि-सान्तचतुरस्रे सरोरुह-निबोधकः ।। 10 ।।
  • मूलाधारे महीरूपो रक्षताद् वीर्यनिग्रही ।
    सर्वाग्रपृष्ठमवतु जानुन्यस्त-कराम्बुजः ।। 11।।
  • जङ्घ पात्ववधूतेन्द्रः पात्वङ्घी तीर्थपावनः ।
    सर्वाङ्गो पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशवः ।। 12 ।।
  • चर्म चर्माम्बरः पातु रक्ते भक्तप्रियोऽवतु ।
    मांसे मांसकरः पातु मज्जां सर्वात्मकठेवतु ।। 13 ।।
  • अस्थिनि स्थिरधीः पातु मेधे मेधाप्रपालकः ।
    शुक्रे सुखकरः पातुयाच्छिरां पातु दृढाकृतिः ।। 14 ।।
  • मनोबुद्धीन्द्रियप्राणानहृषीकेशात्मकठेवतु ।
    कर्मेन्द्रियाणि पात्वीशः पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यजः ।। 15 ।।

कवचम्

  • वधं वधोत्तमः पातु शत्रुभ्यः पातु शत्रुजित् ।
    गृहाराम – धन क्षेत्र – पुत्र – गोत्रादि – शङ्करः ।। 16 ।।
  • आयुः कीर्ति यशो धर्मं सदा नारायणोऽवतु ।
    योगे ध्याने तपे ज्ञाने सहस्रार करप्रदः ।। 17 ।।
  • सर्वतः सर्वगः पातु भ्रान्तिं मे भ्रान्तिनाशकः ।
    वाचासिद्धस्तु मे वाणीं कार्य मे सर्वकार्यकृत् ।। 18 ।।
  • भार्यां प्रकृतिजित् पातु पश्वादीन् पातु शार्ङ्गभृत् ।
    सुखे चन्द्रात्मकः पातु दुःखात् पातु पुरान्तकः ।। 19 ।।
  • प्राच्यां विषहरः पातु पात्वाग्नेय्यां मखात्मकः ।
    याम्यां धीरात्मकः पातु विष्णुः पातु च राक्षसीम् ।। 20 ।।
  • वाराहः पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोऽवतु ।
    कौबेयर्या धनकृत्पातु पात्वीशान्यां महागुरुः ।। 21 ।।
  • ऊर्ध्वं पातु महासिद्धः पात्वधस्ताज्जनार्दनः ।
    रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षत्वादिमुनीश्वरः ।। 22 ।।
  • एतन्मे वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य यः पठेत् । 
    वज्रकायश्चिरंजीवी दत्तसायुज्यमाप्नुयात् ।। 23 ।।

हिंदी अर्थ:-

  • ॐ दत्तात्रेय सिर की रक्षा करें, जो सहस्रार कमल में स्थित हैं।
    भाल (माथे) की रक्षा अनुसूया के पुत्र करें, जो चन्द्रमण्डल के मध्य में हैं। ।।1।।
  • कूर्च (भौहों के बीच) में मनोमय दत्त रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा दत्त पद्मभू करें।
    ज्योतिर्मय रूप नेत्रों की रक्षा करें, और शब्दात्मक दत्त श्रुतियों (कानों) की रक्षा करें। ।।2।।
  • नासिका की रक्षा गन्धात्मक दत्त करें, मुख की रक्षा रसात्मक दत्त करें।
    जिह्वा (जीभ) की रक्षा देवात्मक दत्त करें, दांत और होंठों की रक्षा धार्मिक दत्त करें। ।।3।।
  • गालों की रक्षा त्रिभुजस्वरूप दत्त करें, ठुड्डी की रक्षा आत्मज्ञानी दत्त करें।
    स्वरात्मा, जो षोडशार चक्र में स्थित हैं, वे मेरी हर प्रकार से रक्षा करें। ।।4।।
  • स्कंधों की रक्षा चन्द्र के अनुज करें, भुजाओं की रक्षा क्रतुओं के श्रेष्ठ करें।
    अंतों की रक्षा शत्रुओं पर विजय पाने वाले करें, और ह्रदय स्थान की रक्षा हरि करें।। 5।।
  • जो कादिठान्त (क से ठ तक) बारह दलों वाले कमल में स्थित हैं, जो वायु स्वरूप हैं।
    योगियों के ईश्वर के भी ईश्वर हैं, वे हृदय में स्थित होकर मेरे हृदय की रक्षा करें। ।। 6 ।।
  • पाश्वों में हरि, पार्श्ववर्ती, पार्श्व में स्थित जो हैं, वे रक्षा करें।
    हठयोग और योग के ज्ञाता, कक्ष की रक्षा करें, कृपानिधि। ।।7।।

कवचम्

  • डकार से फकार तक, दशार सरसीरुह (कमल) में,।
    नाभि में स्थित वर्तमान, नाभि में अग्नि रूप जो है, वह रक्षा करे। ।।8।।
  • बुद्धि कटि में स्थित ब्रह्माण्ड में वासुदेव स्वरूप हैं।
    बकार से लकार तक छह दलों वाले कमल का बोध कराने वाले हैं।। 9 ।।
  • जल तत्व से युक्त योगी मणिपूरक चक्र की रक्षा करें।
    वाणी के आरंभ से अंत तक के चतुष्कोण में स्थित कमल का बोध कराने वाले हैं। ।। 10 ।।
  • मूलाधार में महीरूप वीर्यनिग्रह करने वाला रक्षा करे।
    सर्वांग के पीछे वह रक्षा करे, जिसने अपने कमलवत् हाथ घुटनों पर रखा है। ।।11।
  • जंघा की रक्षा पवित्र वधू के स्वामी करें, पिंडली की रक्षा तीर्थों को पावन करने वाले करें।
    सर्वांग की रक्षा सर्वात्मा करें, रोमों की रक्षा केशव करें। ।।12।।
  • चमड़े में चमड़े का वस्त्र धारण करने वाला रक्षा करे, रक्त में भक्तों को प्रिय रक्षा करे।
    मांस में मांस धारण करने वाला रक्षा करे, मज्जा में सर्वात्मा रक्षा करे। ।।13।।
  • अस्थि में स्थिर बुद्धि वाला रक्षा करे, मेधा में मेधा की रक्षा करने वाला रक्षा करे।
    शुक्र में सुख देने वाला रक्षा करे, और सिर में दृढ़ आकृति वाला रक्षा करे। ।।14।।
  • मनोबुद्धीन्द्रियप्राणों की रक्षा हृषीकेश करें।
    ईश्वर कर्मेन्द्रियों की रक्षा करें, अज ज्ञानेन्द्रियों की रक्षा करें।। 15 ।।

Dattatreya vajra panjar kavach | श्रीदत्तात्रेयवज्रपंजर-कवचम्

हिंदी अर्थ:-

  • श्रेष्ठ वध करने वाले शत्रुओं से रक्षा करें, शत्रुजित् शत्रुओं से रक्षा करें।
    गृह, बाग, धन, क्षेत्र, पुत्र, गोत्र आदि की रक्षा शंकर करें।। 16 ।।
  • आयु, कीर्ति, यश और धर्म की सदा नारायण रक्षा करें।
    योग, ध्यान, तप और ज्ञान में, सहस्रार (सिर का शीर्ष) में, वह हाथों से देने वाले हैं। ।।17।।
  • सर्वत्र, सर्वव्यापी वह मेरी रक्षा करें, भ्रम को दूर करने वाले हैं।
    वाणी में सिद्धि देने वाले मेरी वाणी की रक्षा करें, कार्य में, वह मेरे सभी कार्यों को सिद्ध करें। ।।18।।
  • पत्नी से प्रकृति को जीतने वाला रक्षा करे, पशु आदि से शार्ङ्गधारी रक्षा करें।
    सुख में चन्द्र स्वरूप रक्षा करें, दुःख में पुरान्तक रक्षा करें।। 19 ।।
  • पूर्व दिशा में विष को हरने वाला रक्षा करें, आग्नेय दिशा में यज्ञ स्वरूप रक्षा करें।
    दक्षिण दिशा में धैर्य स्वरूप रक्षा करें, राक्षसी दिशा में विष्णु रक्षा करें।। 20 ।।
  • वारुण्यां में वाराह मेरी रक्षा करें, वायव्य में प्राणदाता मेरी रक्षा करें।
    कुबेर की दिशा में धन देने वाले मेरी रक्षा करें, ईशान कोण में महागुरु मेरी रक्षा करें।। 21 ।।
  • ऊपर की ओर महासिद्ध मेरी रक्षा करें, नीचे की ओर जनार्दन रक्षा करें।
    जहाँ कहीं भी रक्षा नहीं है, वहाँ आदि मुनि ईश्वर रक्षा करें।। 22 ।।
  • जो कोई भी दत्तात्रेय के इस वज्रवाक्य का पाठ करता है।
    उसका शरीर वज्र के समान और दीर्घायु होता है, उसे दत्तात्रेय का सानिध्य प्राप्त होता है। ।। 23।।

 

यह ‘वज्रपंजर – कवच’ भागवती पार्वती की प्रार्थना से भगवान् सदाशिव ने सुनाया था,  इसमें शरीर के बाह्य एवं आन्तरिक अंग-प्रत्यंगों

की रक्षा के लिये श्रीदत्तात्रेय के भिन्न-भिन्न नामों का स्मरण करते हुए, उनसे उन-उन स्थानों की रक्षा के लिये विनम्र प्रार्थना की गई है ।

कवच का महत्व

इस कवच के पाठ से मिलने वाले फलों में ‘फलश्रुतिरूप’ 25 पद्यों में अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होने का कथन हुआ है।

साथ ही यह भी बताया गया है, कि इसके पाठ से – सम्पत्तिप्राप्ति, विविध रोग – निवृत्ति, देवकोप, दुष्ट प्रयोग आदि का नाश होता है,

विधि की दृष्टि से हजार पाठ से कार्यसिद्धि, दस हजार पाठ से वन्ध्या को पुत्र प्राप्ति, अल्पायुनाश, तीस हजार पाठ से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है ।

विशेष प्रयोगों के लिये विषवृक्ष के नीचे उदुम्बर के नीचे, बिल्ववृक्ष के नीचे, पीपल के नीचे, आम के नीचे, तुलसी के पास, घुटनों तक पानी में बैठकर पाठ करने के प्रयोग भी दिये हैं ।

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