Kali Mata Mantra diksha । काली माता मंत्र दीक्षा, जप व ध्यान की विधि
- साधक को किसी भी साधना सिध्दि करने से पहले, गुरू धारणा करनी बहुत आवश्यक होती है। बिना गुरु धारण किये कोई भी साधना सिध्द बहुत कम होती है।
गुरु धारणा क्यो है आवश्यक
- गुरु धारणा ! के बाद किसी भी देवता की साधना करने से पहले मंत्र दीक्षा : लेनी आवश्यक होती है। अगर आप मंत्र दीक्षा योग्य गुरु से नही लेते तो भी साधना सुध्द नही होती। आगे पढ़े काली माता ! मंत्र दीक्षा.
Kali Mata Mantra diksha
- भगवती काली ! की उपासना के अनेक मन्त्र है। मैं आपको कुछ मंत्र नीचे दे रहा हूँ।
- एकाक्षर मन्त्र ‘क्रीं’ को ‘काली प्रणव’ कहा गया है। यह ‘चिन्तामणि- ‘काली’ का मन्त्र है, अतः सर्वप्रथम इसी मन्त्र की दीक्षा आवश्यक है। इस एकाक्षर मन्त्र को ‘महामन्त्र’ की संज्ञा से अभिहित किया गया है।.
- ‘हूँ हूं’ – यह क्रोध बीजद्वय मन्त्र ‘स्पर्शमणि काली’ का है, अन्तः दूसरी बार इस मन्त्र की दीक्षा होनी चाहिए। यह मन्त्र शब्द ज्ञान दाता है।.
- ‘हूं क्रीं ह्रीं’ – यह त्र्यक्षर मन्त्र सन्ततिप्रदा काली का है। अतः तीसरी बार इस मन्त्र की दीक्षा होनी चाहिए।.
- “ॐ ह्रीं क्रीं में स्वाहा’ – यह मन्त्र ‘सिद्ध काली’ का है। अतः चौथी बार इस मन्त्र की दीक्षा होनी चाहिए।.
अन्य मंत्रो की दीक्षा
- इन मंत्रो की दीक्षा के उपरान्त भगवती दक्षिणा काली! के बाईस अक्षरों वाले मन्त्र की दीक्षा लेनी चाहिए।
- इसके पश्चात् कामकला काली, हंसकाली, गुह्यकाली, भद्रकाली, श्मशान काली, महाकाली आदि के मन्त्रों की दीक्षा होनी चाहिए।
- उक्त सब मन्त्रों का यथा विधि ज्ञान होने के बाद ही क्रमशः तारा, षोडशी, छिन्नमस्ता आदि के मन्त्रों की दीक्षा प्रशस्त कही गई है। इनके बाद महाकाल भैरव तथा बटुक भैरव के मन्त्रों की दीक्षा का विधान है।
मंत्र का सही चुनाव
- साधक ! को चाहिए कि वह जिस मन्त्र को भी अपने लिए उपयुक्त समझे उसी का साधन करे, परन्तु किसी भी मन्त्र की सिद्धि के
- लिए गुरु से दीक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है। गुरु की कृपा आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन के बिना कोई भी मन्त्र सिद्ध नहीं हो पाता।
योग्य गुरु धारणा
- परम्परागत गुरु ! ही योग्य होगा’- यह विचार निरर्थक है। अपनी पारिवारिक गुरु परम्परा का विचार न करके,
- जो मन्त्रज्ञ श्रेष्ठ सौम्य, योग्य, विद्वान् तथा अनुभवी हो, उसी को अपना गुरु बनाना चाहिए।
काली मंत्र के प्रभाव
- ‘भैरव तन्त्र’ के अनुसार काली देवी ! के सभी मन्त्र महामन्त्र हैं। इनके ध्यान मात्र से ही मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। इन मन्त्रों के सम्बन्ध में ‘अरि- ‘मित्रादि’ दोषों का विचार नहीं किया जाता।
- जो साधक सर्वसिद्धिदात्री भगवती काली का ध्यान तथा मन्त्र जप करता है। उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। वह पद्य-पद्य पर भाषण द्वारा लोगों को आश्चर्य चकित कर देता है।
- उसके दर्शन मात्र से ही शत्रुगण निस्तेज हो जाते हैं तथा राजागण उसकी दासता कर उठते हैं। वह तीनों लोकों को वशीभूत कर सकता है तथा अन्त में दुर्लभ ‘देवी- गण-पद’ को प्राप्त करता है।
- भगवती काली के मन्त्र सामान्य परिश्रम तथा विधियों से ही सिद्ध हो जाते हैं तथा साधक को अच्छे फल प्रदान करते हैं।
भाव
- भगवती काली ! की उपासना के तीन भाव कहे गए हैं- (१) पशुभाव, (२) वीरभाव तथा (३) दिव्यभाव ।
मनुष्य संसार के सभी प्राणियों में सर्वोत्तम पशु है। अतः सामान्य मनुष्य इसी भाव से भगवती की पूजा उपासना करते हैं। - वीर भाव तथा दिव्यभाव उन्नत साधना के अङ्ग हैं। इन भावों की उपासना गुरुद्वारा: निर्देशित मार्ग के आधार पर ही करनी चाहिए, अथवा लाभ के स्थान पर हानि की संभावना अधिक रहेगी ।

श्रद्धा
- जब तक पूर्ण श्रद्धा न हो, तब तक कोई भी साधन सिद्ध नहीं होता । अस्तु, किसी भी साधन को करते समय,
- उसके प्रति पूर्ण श्रद्धालु होना अत्यावश्यक है। श्रद्धा; रहित सभी कर्म तथा साधन निष्फल हो जाते हैं।
ध्यान
- ‘ध्यान’ ही उपासना का मुख्य अङ्ग है। पूजा, जप आदि इसी के साधन हैं।
- ‘ध्यान’ के बिना पूजा, जप, पाठ समान स्तोत्र, करोड़ों स्त्रोतों के आदि सब समान जप निष्फल होते हैं। करोड़ों पूजन के तथा करोड़ों जप के समान ध्यान कहा गया है।
- ‘ध्यान’ की परमावस्था ‘जप’ है। इसे करोड़ों ध्यान के बराबर माना गया है । भगवती काली के ध्यान के अनेक प्रकार हैं। उपासक की जैसी रुचि हो, उसीके अनुसार ध्यान करना चाहिए।
मंत्र कितने प्रकार के होते है
इन मन्त्रों के आधार पर भी ध्यान के क्रमों का वर्गीकरण किया गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं-
(1) कादि, (2) हादि, (3) क्रोधादि, (4) वागादि, (5) नादि, (6) दादि तथा (7) प्रणवादि ।
इन क्रमों के विषय में निम्नानुसार समझना चाहिए-
- ‘कादि’ क्रम-जिन मन्त्रों के आदि-अक्षर ‘क’ कार शब्द से प्रारम्भ हों, उनके लिए ‘कादि क्रम’ का ध्यान प्रशस्त है। यथा-‘श्रीं’।
- ‘हादि’ क्रम-जिन मन्त्रों के आदि-अक्षर ‘ह’ कार शब्द से प्रारम्भ हों, उनके लिए ‘हादि क्रम’ का ध्यान प्रशस्त है। यथा हृीं ।
- ‘धादि’ क्रम-जिन मन्त्रों के आदि अक्षर ‘हूँ’ से प्रारम्भ होते हों, उनके लिए ‘क्रोधादिक्रम, का ध्यान प्रशस्त है।
- ‘वागावि’ क्रम – जिन मन्त्रों का आदि अक्षर वाग्बीज ‘श्री’ से प्रारम्भ हो, उनके लिए ‘वागादि क्रम’ का ध्यान प्रवास्त है।
- ‘नादि’ क्रम-जिन मन्त्रों के अन्त में ‘नमः’ शब्द आता हो, उनके लिए ‘नादि क्रम’ का ध्यान प्रशस्त है।
- ‘दादि’ क्रम-जिन मन्त्रों के आदि में ‘द’ अक्षर आता हो, उनके लिए ‘दादि क्रम’ का ध्यान प्रशस्त है। यथा-‘ ‘दक्षिणे’
- ‘प्रणवादि’ क्रम-जिन मन्त्रों के आदि में प्रणव-बीज ‘ॐ’ आता हो, उनके लिए ‘प्रणवादि क्रम’ का ध्यान प्रशस्त है।
ध्यान मंत्र अर्थ सहित
- मन्त्र के सार्थ (अर्थ ज्ञान सहित) स्मरण को जप कहा जाता है। अर्थात् जो जप मन्त्र के वास्तविक अर्थ को जानते हुए किया जाता है, वही यथार्थ जप है। अर्थ जाने बिना मन्त्रोच्चारण अथवा मन्त्र जप निष्फल होता है।
- अतः देवता के रूप, गुण आदि का मनन करते हुए तथा मन्त्र के वास्तविक अर्थ को अनुभव करते हुए ही जप करना उचित है।
इस भांति निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन्त्र सिद्ध हो जाता है, तत्पश्चात् ही सफलता की उपलब्धि होती है।
1. ‘कादि’ क्रम का ध्यान
- “करालवदनां घौरा मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमाला विभूषिताम् ॥ - सद्यः छिन्नशिरः खड्गवामाधोर्ध्वं कराम्बुजाम् ।
दक्षिणोध्वधः पाणिकाम् ॥ - अभयं वरदञ्चैव महामेघ प्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् ।
कण्ठावसक्तमुण्डाली गलद्रुधिर चचिताम् ॥ - कर्णावतंसतानीत शवयुग्म भयानकां ।
घोरदंष्ट्रा करालास्यां पीनोन्नत पयोधराम ॥ - शवाना कर संवतिः कृतकाञ्ची हसन्मुखीम् ।
सृक्कद्वयगलद्रक्तधारां विस्फुरिताननाम् ॥ - घोररावां महारौद्री श्मशानालय वासिनीम् ।
बालवर्क मण्डलाकार लोचनत्रितयान्विताम् ॥ - दन्तुरां दक्षिण व्यापि मुक्तालम्बिकचोच्चयाम् ।
शवरूप महोदव हृदयोपरि संस्थिताम् ॥ - शिवाभिर्घोर रावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ।
महाकालेन च समं विपरीतरतातुराम || - प्रसन्नावदनां स्मेरानन सरोरुहाम् ।
सुख एवं सञ्चियन्तयेत् काली सर्वकाम समृद्धिदां ।। “
भावार्थ-
- “भगवती दक्षिणा कालिका कराल मुख वाली, घोर शब्द वाली, -मुक्त केशों वाली, चार भुजाओं वाली, दिव्य तथा मुण्डमाला से विभूषित हैं। वे सद्यः काटे गये शिर तथा खड्ग को अपने बांई ओर के निचले तथा ऊपरी हाथों में धारण किए हैं। दाई ओर के ऊपरी हाथ में अभय तथा निचले हाथ में वरद मुद्रा है।
- वे महामेघ की प्रभा तुल्य श्याम शरीर वाली, दिगम्बरा हैं। उनके कण्ठ में मुण्डों की माला है जिनसे रक्तस्राव हो रहा है। वे अपने दोनों कानों में दो भयानक शवों को कुण्डल, की भांति पहने हैं,
- उनके दाँत विकराल हैं एवं उनके स्तन बड़े तथा उन्नत हैं। वे शवों के हाथों की करधनी पहने हुए हैं, जिनके कारण उनका जननाङ्ग – आच्छादित है। वे हास्यमुखी हैं, उनके दोनों होठों के कोनों से रक्तस्राव हो रहा है, उनका मुँह खुला हुआ है।
- वे घोर शब्द तथा महारौद्ररूप वाली हैं। वे श्मशानालय में निवास करती है। बालसूर्य मण्डल की भांति लालवर्ण वाले उनके तीन नेत्र हैं। वे बड़े दांतों वाली, दाई ओर मोतियों के उच्चासन पर शवरूपी महादेव क हृदय के ऊपर स्थित हैं।
- शिवाएँ आदि घोर शब्द करती हुई उनके चारों ओर खड़ी हैं। वे महाकाल के साथ विपरीत रति में आसक्त हैं । सुखपूर्वक प्रसन्न मुख वाली हैं। उनके मुख कमल पर मुस्कान सुशोभित है। ऐसी सर्व काम समृद्धिदायिका भगवती काली का चिन्तन (ध्यान) करना चाहिए।”
‘हादि’ क्रम का ध्यान
- “देव्याध्यानमयो वक्ष्ये सर्वदेवोऽपशोभितम् ।
अज्जनाद्रिनिभां देवीं करालवदनां शिवाम् || - मुण्डमालावलीकीणां मुक्तकेशीं स्मिताननाम् ।
महाकालहृदम्भोज स्थितां पीन पयोधराम ॥ - विपरीतरतासक्तां घोर दष्ट्रां शिवन वै ।
नागयज्ञोपवीताञ्च चन्द्रार्द्धकृत शेखराम् ॥ - सर्वालङ्कार संयुक्तां मुक्तामणि विभूषिताम् ।
मृतहस्तसहस्रं स्तु बद्धकाञ्चीं दिगम्बराम् ॥ - शिवाकोटि सहस्रंस्तु योगिनीभिविराजिताम् ।
रक्तपूर्ण मुखाम्बोजां मद्यपान प्रमत्तिकाम् ।। - सद्यरित्र शिरः खड्गवामोर्ध्वाधः कराम्बुजाम् ।
अभयोवरदक्षोर्ध्वाधः करां परमेश्वरीम् ॥ - वहन्यकं शशि नेत्रांच रक्त विस्फुरिताननाम् ।
विगतासु किशोराभ्यां कृत कर्णावतंसिनीम् ॥ - कण्ठावसक्तं मुण्डाली गलदूधिर चचिताम् ।
श्मशानवह्निमध्यस्थां ब्रह्म केशव वन्दिताम् ।।
भावार्थ-
- “देवी का ध्यान इस प्रकार करें भगवती सब देवताओं से सुशोभित हैं अर्थात् सभी देवता उनके चारों ओर खड़े हुए स्तुति कर रहे हैं। वे कज्जलगिरि के वर्ण वाली तथा कराल मुखवाली, कल्याणकारी हैं।
- वे मुण्डमाला पहिने हैं, उनके केश बिखरे हुए हैं, उनके मुख पर मुस्कान सुशोभित है, वे महाकाल के हृदय कमल पर स्थित हैं, उनके स्तन बड़े-बड़े हैं।
- वे भयानक दाँतो वाली देवी शिव के साथ विपरीत रति में असक्त हैं वे नागयज्ञोपवीत पहने हैं तथा शिर पर अर्द्धचन्द्र धारण किये हैं।
भावार्थ-
- वे सभी अलंकारों से युक्त तथा मुक्ता-मणियों से विभूषित हैं। वे एक सहस्र मृतकों के हाथों की करधनी बाँधे हुए दिगम्बरा हैं।
- करोड़ों शिवाएँ तथा सहस्रों योगिनियाँ उनके चारों ओर विराजित हैं। उनका मुख कमल रक्त पूर्ण है तथा वे मद्यपान के कारण प्रमत्ता बनी हुई हैं।
- परमेश्वरी के बाई ओर के ऊपरी हाथ में खड्ग तथा निचले हाथ में सद्यः छिन्न (कटा हुआ) शिर है तथा दांई ओर का ऊपरी हाथ अभयमुद्रा एवं निचला हाथ वरदमुद्रा में है।
- अग्नि, सूर्य तथा चन्द्रमा जैसे उनके तीनों नेत्र हैं। उनके मुख से रक्त बह रहा है। अपने कानों में किशोर वय बालकों के शवों को कुण्डल की भांति हैं पहने ।
- वे ऐसी मुण्डमाला धारण किए हैं, जिनके कटे हुए कण्ठों से रक्त स्राव हो रहा है। वे श्मशानाग्नि में स्थित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु द्वारा वन्दित हैं।”
क्रोधादि-क्रम का ध्यान
- “दीप त्रिकोण विपुलं सर्वतः सुमनोहरम ।
कूजत् कोकिल नादाढ्यं मन्दमारुत सेवितम् ॥ - भृगपुष्पलताकीर्णमुद्यच्चन्द्र दिवाकरम् ।
स्मृत्वा सुवाच्धि मध्यस्थं तस्मिनमाणिक्यमण्डपे।। - रत्नसिहासने पद्ये त्रिकोणोज्ज्वलकणिके ।
पीठे सञ्चिन्तयेत देवीं साक्षात् त्रैलोक्य सुन्दरीम् ॥ - नीलनीरज संकाशा प्रत्यालीढपद स्थिताम् ।
चतुर्भुजां त्रिनयनां खण्डेन्दुकृत शेखराम् ॥ - लम्बोदरी विशालाक्षी’ श्वेत प्रेतासन स्थिताम् ।
दक्षिणोध्र्वेन निस्तृशं वामोर्ध्वनीलनीरजम।। - कपालंदधतीच्चैव दक्षिणायश्चकर्तु काम् ।
नागाष्टकेन सम्बद्ध जटाजूटां सुराचिताम् ॥ - रक्तवर्तुल नेत्रांश्च प्रव्यक्त दशनोज्ज्वलाम् ।
व्याघ्रचर्मपरीधानां गन्धाष्टक प्रलेपिताम् ॥ - ताम्बूलपूर्ण वदनां सुरासुर नमस्कृताम् ।
एवं सञ्चितयेत् काली ‘सर्वाभीष्टप्रदां शिवाम् ।।’
भावार्थ-
- “तीनों कोनों में असंख्य दीपक चारों ओर सुशोभित होकर जगमगा रहे हैं। कोकिलाएं कूक रही है। मन्द मन्द वायु बह रही है।
भ्रमर, पुष्प, लताओं से आच्छादित स्थल में सूर्य-चन्द्र उदित हैं तथा अमृत के समुद्र के मध्य एक माणिक्यनिर्मित मण्डप बना हुआ है। - वहाँ रत्नसिह्न पर पद्म त्रिकोण की उज्ज्वल कर्णिका वाली पीठ पर विराजमाव साक्षात् त्रैलोक्य सुन्दरी देवी! का इस प्रकार चिन्तन करें-
- नील कमल की शोभा युक्त भगवती प्रत्यात्पीठ पद से स्थित हैं। वे चार भुजाओं वाली, तीन नेत्रों वाली तथा मस्तक पर अर्द्धचन्द्र को धारण किये हुए हैं।
- वे लम्बे उदर वाली, विशाल नेत्रों वाली, श्वेत-प्रेतासन पर स्थित हैं। वे अपने दाई ओर के ऊपरी हाथ में खर्पर तथा बांई ओर के ऊपरी हाथ में नील- कमल धारण किए हैं।
- वे बाँई ओर के निचले हाथ में कपाल तथा दाई ओर के निचले हाथ में कैची धारण किए हैं। वे आठ नागों से सम्बद्ध हैं, जटाजूटधारिणी हैं तथा देवताओं द्वारा पूजित हैं।
- वे रक्तवर्ण गोल नेत्रों वाली हैं। उनके उज्ज्वल दांत दिखाई दे रहे हैं। वे व्याघ्र चर्म का परिधान पहिने हैं तथा अष्टगन्ध का लेप किए हैं।
- उनका मुख ताम्बूल पूरित है। देवता तथा दैत्य उन्हें नमस्कार कर रहे हैं। ऐसी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली भगवती शिवा का ध्यान करना उचित है।”
वागादि-क्रम का ध्यान
- “चतुर्भुजां कृष्णवर्णी मुण्डमाला विभूषिताम् ।
खड्गञ्च दक्षिणे पाणी विभ्रतीं सशरं धनुः ॥ - मुण्डञ्च खर्परञ्चैव क्रमाद्वामेन विभ्रतीम् ।
यो लिखन्ती जटामे कां विभ्रती शिरसा स्वयं।। - मुण्डमाला वरा शीर्षे ग्रीवायामपि सर्वदा ।
वक्षसा नागहारं तु विभ्रतीं रक्तलोचनाम् ।। - कृष्ण वस्त्र धरा कट्यां व्याघ्राजिनसमन्विताम् ।
वामपाद शवहृदि संस्थाप्य दक्षिणपदम् ॥ - विन्यस्य सिंह पृष्ठेच लेलिहानां शवं स्वयं ।
सादृहासां महाघोररावयुक्ता सुभीषणाम् ।।”
भावार्थ-
- भगवती चार भुजाओं वाली, कृष्णवर्णा तथा मुण्डमाला से विभू पिता हैं। वे दाये हाथों में खड़ग तथा धनुष-वाण धारण किये हैं। उनके बाँये हाथों में मुण्ड तथा खप्पर है।
- उनके मस्तक की एक जटा आकाण का स्पर्श कर रही है। वे अपने मस्तक तथा कण्ठ में मुण्डों की माला सदैव धारण किए रहती हैं। उनके वक्षःस्थल पर नाम हार सुशोभित है तथा नेत्र लालवर्ण के हैं।
- वे कृष्णवर्ण वाली, दिव्यस्वरूपा तथा वाषम्बर धारिणी हैं। वे अपने बांये पाँव को शव के हृदय पर रखे हैं तथा दाँये पाँव को सिंह की पीठ पर रखे बैठी हैं। वे अट्टहास युक्त महाघोर शब्द करने वाली भीषण स्वरूपा हैं।”
नादि-क्रम का ध्यान
- “खड्गञ्च दक्षिणे पाणी विनतीन्दीवरद्वयम् ।
कर्तुं कां खर्परञ्चैव क्रमाद वामेन विभ्रती ।।”
(शेषः वागादि क्रमानुसार )
भावार्थ –
- भगवती के दाई ओर वाले दोनों हाथों में क्रमशः खड्ग तथा
कमल हैं तथा बाँई ओर वाले दोनों हाथों में क्रमशः कैची एवं खप्पर हैं।.
(शेष ध्यान वागादि-क्रम के अनुसार करें-)।
दादि-क्रम का ध्यान
- “सद्यः कृन्तशिरः खड्गमूर्ध्वद्वय कराम्बुजाम् ।
अभयं वरदं चैव तयोद्वय करान्विताम् ।।”
(शेषः कादि क्रमानुसार)
भावार्थ –
- भगवती ऊपर के दोनों कर कमलों में सद्यः कटा हुआ शिर तथा
खड्ग लिए हैं एवं नीचे के दोनों हाथ अभय तथा वरद मुद्रा में है।.
(शेष ध्यान कादि-क्रम के अनुसार करें-)
प्रणवादि-क्रम का ध्यान
- इस क्रम का ध्यान ‘कादि-क्रम’ के अनुसार कहा गया है।.
काली गायत्री मंत्र
- “कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् ।.
दुर्गा सप्तश्र्लोकी पाठ | kali mata darshan mantra | मां बगलामुखी रक्षा कवच