Santoshi Mata vrat katha ।। व्रत पूजन व उद्यापन की विधि

व्रत पूजन व उद्यापन की विधि।। Santoshi Mata vrat katha

 

पाठकों आज हम आपको ; ” Santoshi Mata vrat katha ” पूजन व उद्यापन की विधि बताने जा रहे है। ताकि आपके व्रत मे कोई कमी न रह जाए। इसके अतिरिक्त संतोषी माता की आरती , हिंडोका, भोग लगाने की अरदास भी बता रहे है।

 

Santoshi Mata vrat katha ।। व्रत पूजन व उद्यापन की विधि

सिद्ध सदन सुन्दर बदन गणनायक महाराज। दास आपका हूँ सदा कीजे जग में काज॥ जय शिवशंकर जय गंगाधर जय जय उमा भवानी । सियाराम कीजै कृपा हरि राधा कल्याणी॥ जय सरस्वती जय लक्ष्मी जय जय गुरुदयाल। देव, विप्र, गौ, सन्तजन, भारत देश विशाल॥ चरणकमल गुरुजनों के नमन करूं मैं शीश।मो घर सुख-सम्पत्ति भरो देकर शुभाशीष॥ भक्त बन्धुओं और बहनों!

आज एक ऐसी पवित्र वार्ता आप चरित्र रूप में सुन रहे हैं जिसके श्रद्धा भक्तिपूर्वक व्रत करने व सुनने से सदगृहस्थ प्राणियों से युक्त घर में हर प्रकार का सुख और सन्‍तोष आता है। एक देवी अनेकों रूपवाली बनकर संसार में व्याप्त हो रही है। संसार के दुःखों को मिटाने वाले लोगों ने बहुत जगह इस देवी का प्रभाव देखा है । लाखों भक्त इस घट-घट मे व्यापी महान अलौकिक देवी शक्ति को भक्ततिपूर्ण धारण कर हर प्रकार से सुखी बन चुके हैं।इस परम महान अलौकिक देवी शक्ति का नाम सच्ची श्रद्धा एवं अन्तःकरण का निष्कर्ष स्वाभाविक प्रेम है। जगत में समस्त प्राणियों पर राज्य करने वाली अलौकिक सत्ता का रूप आप अपने नेत्रों से नहीं देख सकेगें क्योंकि यह सर्वत्र उपस्थित होते हुए भी निराकार और अगोचर है। माता उमा को इसका रूप बताते हुए भगवान् शंकर ने कहा है कि प्रभु को प्रत्यक्ष देखना हो तो अपने हृदय के प्रेम में देखो।जब प्रभुके द्वारपाल जय-विजय शाप के कारण रावण कुम्भकरण हुए तब उनके अत्याचारों से दुःखी देवताओं ने सर्व रक्षक नारायण से प्रार्थना की थी। हे प्रभु! हमारी रक्षा करो। परन्तु इतने पर भी वे प्रगट नहीं हुए तब भगवान् शंकर ने बताया कि दूर क्यों जाते हो, प्रभु को अपने हृदय में खोजो ।

दोहा– हाजिर हैं हर. जगह पर, प्रेम रूप अवतार । करें न देरी एक पलहो यदि सत्य पुकार ॥ प्रेमी के वश में बंधे, मांगें तो देत। बात न टालें भक्त की, परखें सच्चा हेत ॥

संसार में हर प्रेमी को चाहिए कि धारणा को सच्ची बनाकर रखे। प्रेम का यह मूल मंत्र, है-मन से यह बात कभी न टले, भगवान् प्रेम के वश में है। हम सदा उन्हीं का ध्यान धरें, मन में कुछ भेद न रखें। वह सत्य रूप सबका साक्षी है, सब जीव उन्हीं के वश में हैं। सूरज में जैसे प्रकाश है, चन्द्रमा में शीतलता और वायु में है जैसे प्रवाह, इसी प्रकार वह ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। अब और ध्यान में मत भटको, बस एक उन्हीं का ध्यान धरो। प्रभु होवेंगे साकार श्रीघ, सब रस करुणा के रस में हैं। इसलिए खड़े हो जाओ सब मिलकर
हरिवाणी का गान करो। नारायण अभी प्रकट होंगे, ऐसी ताकत हरि यश में हैं।

(श्रीकृष्ण भगवान् अपनी वाणी में स्वयं गीता के चतुर्थ अध्याय में हमें बतलाते हैं-)

1.श्रद्धा वाले को ज्ञान मिले, तत्पर इन्द्रिय वश वाला हो। पावे जो ज्ञान शीघ्र ही, तब सुख शांति स्नेह निराला हो॥

2.दोहा- वन में दावानल लगी चन्दन वृक्ष जरात । वृक्ष कहें हंसा सुनो क्यों न पंख खोल उड़ जात ॥

3.प्रारब्ध पहिले रचा पीछे रचा शरीर। तुलसी माया मोह फंस प्राणी फिरत अधीर।।

4.तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर। वशीकरण यह मन्त्र है तज दे वचन कठोर।।

5.मान, मोह, आसक्ति तजि बनो अध्यात्म अकाम। द्वन्द मूले सुख दुःख रहित पावत अवयव धाम।।

6.तामें तीन नरक के द्वार हैं काम, क्रोध मद लोभ । उन्हें त्याग कीन्हें मिलत आत्म-सुख बिन क्षोभ ॥

7.सब धर्मों को त्याग कर मो शरणागति धार । सब पापों से मैं तेरा करूं शीध्र उध्दार।।

8,यह गीता का ज्ञान है सब शास्त्रों का सार।भक्ति सहित जो नर पढ़े लहै आत्म उध्दार।।

9.गीता के सम ज्ञान नहिं मंत्र न प्रेम समान ।शरणागति सम सुख नहीं देव न कृष्ण समान ॥

10.अमृत पी सन्तोष का हरि से ध्यान लगाय। सत्य राख संकल्पु मन विजय मिले जहां जाय ।॥

11.मन चाही सब कामना आपुंहि पूरन होय।निश्चय ‘रख भगवान् पर पल मे दुःख खोय।।

( Santoshi Mata vrat katha vidhi )

सन्तोषी माता के पिता गणेश, माता ऋद्धि- सिद्धि धन, धान्य, सोना, चांदी, मोती, मूंगा, रत्नों से भरा परिवार, पिता गणपति की दुलार भरी कमाई, दरिद्रता दूर, कलह का नाश, सुख-शांति का प्रकाश, बालकों की फुलवारी, धन्धे में मुनाफे की भारी कमाई मन की कामना पूर्ण, शोक विपत्ति चिन्ता सब दूर। सन्तोषी माता का लो नाम, जिससे बन जाएँ सारे काम, बोलो सन्तोषी माता की जय । इस व्रत को करनेवाला कथा कहते व सुनते समय हाथ में गुड़ और भुने हुए चने रखे तथा सुनने वाले सन्तोषी माता की जय! संतोषी माता की जय! इस प्रकार जय-जयकार; मुख से बोलते जाएँ।कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़, चना गाय को खिलावें, कलश में रखा हुआ गुड़ चना सबको प्रसाद के रूप में बांट दें, कथा से पहले कलश में जल’ भरें। उसके ऊपर गुड़ चुने से भरा कटोरा रखें, कथा समाप्त होने और आरती करने के बाद कलश के जल को घर में सब जगहों पर छिडकें और बचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डाल दें। सवा पांच रुपये का गुड़ चना लेकर माता का व्रत करें। यह माता श्रद्धा और भाव की भूखी हैं।

आप सवा रुपये का या श्रद्धा अनुसार सवाये का गुड़ चना ले सकते हैं। अगर घर में ही गुड़-चना रखा हुआ हो तो वह भी व्रत के काम में आ जाता। कम ज्यादा का कोई विचार नहीं। इसलियें जितना भी बन पड़े श्रद्धा से अपर्ण करें ॥ श्रद्धा और प्रेम से प्रसन्न मन हो व्रत करना चाहिए । व्रत के उद्यापन में अढ़ाई सेर खाजा, मोमनदार पूड़ी, खीर, चने का साग, नैवेद्य रखें, देसी घी का जोत जलाकर सन्तोषी| माता की जय-जयकार बोलें तथा नारियल फोड़े । इस दिन घर में कोई खटाई न खावे और न स्वयं खावें, न किसी दूसरे को खाने दें । इस दिन आठ कुंवारे लड़कों को भोजन करावें। जहां तक हो सके घर के ही बालकों को बुलाएं, कुटुम्बी के बालक न मिलें तो ब्राह्मणों एवं रिश्तेदारों के या पड़ौसियों के बालक बुलावें । उन्हें खटाई की कोई वस्तु. न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें । नकद पैसे न दें, कोई वस्तु दक्षिणा में दें । व्रत करनेवाला कथा सुन, प्रसाद ले, एक समय भोजन करे, इससे माता प्रसन्न होगी, दुःख दरिद्रता दूर होगी तथा मनोकामना पूरी होगी।

Santoshi Mata vrat katha ।। व्रत पूजन व उद्यापन की विधि

( Santoshi Mata vrat katha start )

एक बुढ़िया थी और उसके सात बेटे थे। छः कमाने वाले थे एक निकम्मा था । बुद़िया मां छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो कुछ बचता तो सातवें को दे देती थी। सातवाँ पुत्र बहुत सीधा-साधा था, मन में कुछ विचार न करता था। एक दिन वह अपनी बहू से बोला-देखो! मेरी माता का मुझ पर कितना प्रेम है।वह बोली-क्यों नहीं, सबका झूठा बचा हुआ तुमको जो खिलाती है। वह बोला ऐसा हो ही नहीं सकता? मैं जब तक अपनी आँखों से न देखूं मान नहीं सकता। बहू ने हंसकर कहा-तुम देख लोगे तब.तो मानोगे। कुछ दिन बाद एक बड़ा त्यौहार आया, घर में अनेक प्रकार के व्यंजन और चूरमा के लड्डू बने। वह जांचने को सिर दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़ कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा । छहों भाई भोजन करने आये । उसने देखा, मां ने उनके लिये सुन्दर-सुन्दर आसन बिछाये हैं, सात प्रकार की रसोई परोसी है। वह आग्रह करके जिमाती है, वह देखता रहा । छहों भाई भोजन कर उठे तब मां ने उनकी जूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया। जूठन साफ-कर उसकी मां ने पुकारा-उठ बेटा। छहों भाई भोजन कर गये अब तू ही बाकी है, उठ न कब,खाएगा ? वह कहने लगा-मां! मुझे भोजन नहीं करना। मैं परदेश जा रहा हूं। माता ने। कहा-कल जाता हो तो आज ही चला जा, ऐसा सुनकर वह मां से बोला हां-हां मैं आज ही जा रहा हूं। यह कह कर वह घर से निकल गया । चलते समय बहू की याद आई, वह गौशाला में कंडे थाप रही थी, उसके पास जाकर

दोहा– हम जावें परदेश को, आवेंगे कुछ काल। तुम रहियो सन्तोष से, धर्म आपनो पाल ॥
वह बोली-दो निशानी आपनी देख धरू मैं धीर । सुधि हमरी मती बिसारियो, रखियो मन गंभीर ॥

( Santoshi Mata vrat katha )

वह बोला-मेरे पास तो कुछ नहीं है, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दो। वह बोली-मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। वह कण्डे थाप रही थी उसने कहा यह गोबर भरा हाथ है उसने उसकी पीठ पर वह गोबर लगे हाथ से थाप मार दी। वह चल दिया। चलते-चलते दूर देश में पहुंचा। वहां पर एक साहूकार की दुकान थी, वहां जाकर वह बोला सेठ जी मुझे नौकरी पर रख लो, साहूकार को जरूरत थी। सो उसे साहूकार ने नौकरी पर रख लिया। उसने पूछा सेठ जी कितने पैसे मिलेंगे तो साहूकार ने कहा-काम देखकर दाम मिलेंगे। उसे साहूकार की नौकरी मिल गई। वह सवेरे सात बजे से रात तक काम क़रने लगा। कुछ दिन में दुकान का लेन-देन, हिसाब -किताब ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम संभालने लगा। साहूकार के ७-८ नौकर थे। वे सब चक्कर खाने लगे कि यह बहुत होशियार बन गया है। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया । बारह वर्ष में वह नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छोड़कर बाहर चला गया। इधर बहू पर क्या बीती सो सुनो।सास-ससुर उसे बहुत दुःख देने लगे। सारी गृहस्थी का काम करा कर, उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते । इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नरेली में पानी। इस तरह दिन बीतते रहे। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत सी स्त्रयां सन्तोषी माता का व्रत करती दिखायीं दीं, वह वहां खड़ी हो कथा सुनकर बोली-बहिनों! यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल मिलता है,इस व्रत के करने की क्या विधि है?

( Santoshi Mata vrat katha )

यदि तुम अपने इस व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा बड़ा एहसान मानूंगी। तब उनमें से एक स्त्री बोली-सुनो, यह सन्तोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है, लक्ष्मी आती हैं। मन की चिन्ताएं दूर होती हैं। घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शान्ति मिलती है। निपुत्र को पुत्र मिलता है, पति बाहर गया हो तो शीघ्र आ जाता है, कुवांरी कन्या को मन पसन्द वर मिलता है,
राजद्वार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जाता है, कलह क्लेश की निवृत्ति हो, सुख शान्ति हो, घर में धन जमा हो, पैसा जायदाद का लाभ होता है, रोग दूर हो जाता है तथा और भी मन में जो कुछ कामना हो सब इस सन्तोषी माता की कृपा से पूरी हो जाती है। इसमें सन्देह नहीं। वह पूछने लगी-“यह व्रत कैसे किया जावे? यह भी बताओ तो बड़ी । कृपा होगी।” स्त्री कहने लुगी- सवा रुपये का गुड़, चना लेना। इच्छा हो तो सवा पांच रुपये का लेना या अपनी सहूलियत अनुसार लेना बिना परेशानी श्रद्धा और प्रेम से जितना भी बन सके सवाया लेना। सवा पांच पैसे से सवा पांच आने तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति अनुसार गुड़ और चना लें, हर शुक्रवार को निराहार रह, कथा कहना, सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं। लगातार नियम पालन करना। सुनने वाला कोई न मिले तो घी, का दीपक जला उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना, परन्तु नियम न टूटे। जब तक कार्य सिद्ध न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना। तीन मास में माता पूरा फल प्रदान करती हैं। यदि किसी के खोटे ग्रह हों तो भी माता एक वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्ध करती हैं। कार्य सिद्ध होने पर ही उद्यापन करना चाहिए। बीच में नहीं। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना।

Sankalp kya hota hai ।। संकल्प कैसे करते है।

( Santoshi Mata vrat katha )

आठ लड़कों को भोजन कराना। जहां तक मिलें देवर, जेठ, “भाई-बन्धु, कुटुम्ब के लड़के लेना, नमिलें तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लड़के बुलाना। उन्हें भोजन कराना, यथाशक्ति दक्षिणा दे, माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में कोई खटाई न खावें।’यह सुन बुढ़िया की बहू चल दी । रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़ चना ले माता के व्रत की तैयारी कर, आगे चली और सामने देख पूछने लगी- यह मन्दिर किसका है? सब कहने लगे-संतोषी माता का मंदिर है । यह सुन माता के मन्दिर में जा माता के चरणों में लोटंने लगी। विनती करने लगी-‘माँ! मैं: दीन हूँ, निपट मूर्ख हूँ। व्रत के नियम कुछ जानती नहीं। मैं बहुत दुःखी हूँ । हे माता जगजननी! मेरा दुःख दूर कर, मैं तेरी शरण में हूँ। माता को दया आई। एक शुक्रवार बीता कि दूसरे ही शुक्रवार को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को ही उसका भेजा हुआ पैसा उसे मिला। यह देख उसके जेठ-जेठानी मुंह सिकोड़ने लगे, इतने दिनों बाद थोड़ा- सा पैसा आया इसमें क्या बड़ाई है। लड़के ताने देने लगे- “काकी के पास अब पत्र आने लगे रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बोलने से भी नहीं बोलेगी।” बेचारी सरलता से कहती-भैया! पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सबके लिये अच्छा है।”ऐसा कहकर आंखों में ऑँसू भरकर सन्तोषी माता के मन्दिरमें आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी-“मां मैंने तुमसे पैसा तो नहीं माँगा । मुझे पैसे से क्या काम है? मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूँ। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा- ” जा बेटी तेरा स्वामी आयेगा।” यह सुन खुशी से बावली हो, घर जाकर काम करने लगी। अब सन्तोषी मां विचार करने लगी-इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया तेरा पति आयेगा, पर आयेगा कहां से ? वह तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता।

( Santoshi Mata vrat katha )

उसे याद दिलाने तो मुझे जाना पड़ेगा। इस तरह माता उस बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वप्न में प्रकट हो कहने लगी-“साहूकार के बेटे सोता है या जागता है।” वह कहता है-माता! सोता भी नहीं जागता भी नहीं हूं, बीच में ही हूं। कहिए क्या आज्ञा है? मां कहने। लगी-तेरा घरबार है या नहीं? वह बोला- मेरा सब कुछ है माता! मां, बाप, भाई, बहन, बहू, क्या कमी है? मां बोली-भोले पुत्र! तेरी घरवाली घोर कष्ट उठा रही है। तेरे मां-बाप उसे दुःख दे रहे हैं, वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुधि ले । वह बोला-हां माता! यह तो मुझे मालूम है, परन्तु जाऊं तो जाऊं कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता, कैसे चला जाऊं? माँ कहने लगी-मेरी बात मान, सवेरे नहा-धोकर सन्तोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत् कर दुकान पर जा बैठना। देखते-देखते तेरा लेन-देन चुक जायेगा, जमा माल बिक जायेगा, सांझ होते-होते धन का ढेर लग जायेगा। अब तो वह सवेरे बहुत ही जल्दी उठ मित्र बन्धुओं से अंपने सपने की बात कही तो । वे सब उसकी बात अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे कहीं सपने भी सच्चे होते हैं । एक बूढ़ा बोला-देख भाई! मेरी बात मान, इस तरह सीच या झूठ करने के बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा ही करना, तरा क्या जाता है? वह बूढ़े की बात मानकर नहा धोकर सन्तोषी माता को दण्डवत् कर घी का दीपक जला दुकान पर जा बैठा। थोड़ी देर में वह क्या देखता है कि देने वाले रुपया लाए, लेने वाले हिसाब लाये । कोठे में भरे सामानों के खरीददार नगद दाम में सौदा करने लगे। शाम तक धन का ढेर लग गया। मन में माता का नाम ले प्रसन्न हो घर जाने के वास्ते गहना, कपड़ा, सामान खरीदने लगा और वहां के काम से निपट वह घर को रवाना हुआ। वहां वहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है,लौटते वक्त माताजी के मन्दिर पर विश्राम करती है । वह तो उसका रोज रुकने का स्थान ठहरा। दूर से धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है-हे माता! यह धूल कैसी उड़ रही है? मां कहती है-हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है।

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( Santoshi Mata vrat katha )

अव तू ऐसा कर, लकड़ियों के तीन बोझ बना। एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मन्दिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख। तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देख -कर मोह पैदा होगा, वह वहां रुकेगा, नाश्ता पानी बना खाकर मां से मिलने जायेगा। तू लकड़ी का बोझ उठाकर जाना और वीच चौक में गट्ठा डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना-लो सासूजी! लकड़ियों का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो। आज कौन मेहमान आया है? मां की बात सुनकर वह बहुत अच्छा माताजी कहकर प्रसन्न मन हो लकड़ियों के तीन गट्ठे ले आई। एक नदी के तट पर, एक माता के मन्दिर पर रखा, इतने में ही वह मुसाफिर आ पहुंचा।सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि अब यहीं निवास करे और भोजन वना खा-पीकर गांव जाए। इस प्रकार भोजन खा, विश्राम ले, वह गांव को गया। उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिये आती है, उसे आंगन में डाल, जोर से तीन आवाज़ देती है-लो सासूजी! लकड़ी का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है? यह सुनकर उसकी सास अपने दिए हुए कष्टों को भुलानेहेतु कहती है बहू ऐसा क्यों कहती हो? तेरा मालिक ही तो आया है। बैठ मीठा भात खाकर कपड़े-गहने पहन। इतने में आवाज सुनकर उसका स्वामी बाहर आता है और अंगूठी देख व्याकुल हो। मां से पूछता है-यह कौन है? मां कहती है-बेटा यह तेरी बहू है। आज बारह वर्ष हो गए जब से तू गया है, तब से सारे गांव में जानवर की तरह भटकती फिरती है।काम काज घर का कुछ करती नहीं, चार समय आकर खा जाती है।

( Santoshi Mata vrat katha )

अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपड़े में पानी मांगती है। वह लज्जित हो बोला-ठीक है मां मैंने इसे-भी देखा है और तुम्हें भी। अब मुझे दूसरे घर की चाबी दो तो मैं उसमें रहूंगा। तब माँ बोली- ठीक है बैटा जैसी तेरी मर्जी, यह कह मां ने चाबी का गुच्छा पटक दिया। उसने लेकर दूसरे कमरे में जो तीसरी मंजिल के ऊपर था, खोलकर सारा सामान जमाया। एक दिन में ही वहां राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था, वह सुख भोगने लगी। इतने में अगला शुक्रवार आया उसने अपने पति से कहा मुझे माता का उद्यापन करना है। उसका पति बोला-बहुत अच्छा खुशी से कर ले। तुरन्त ही वह उद्यापन की तैयारी करने लगी। जेठ के लड़के को भोजन के लिये कहने गयी। उसने मंजूर किया परन्तु पीछे जेठानी अपने बच्चों को सिखलाती है-देखो रे! भोजन के समय सब लोग खटाई मांगना, जिससे इसका उद्यापन पूरा न हो, लड़के जीमने आये। खीर पेट भर कर खाई। परन्तु बात याद आते ही कहने लगे-हमें कुछ खटाई खाने को दो, खीर खाना हमें भाता नहीं, देखकर अरुचि होती है । लड़के उठ खड़े हुए। बोले पैसे लाओ। भोली बहू कुछ जानती नहीं थी, सो उन्हें पैसे दे दिये। लड़के उसी समय उठ करके इमली ला खाने लगे । यह देखकर बहू पर माता जी ने कोप किया । राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गये। जेठ-जेठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे । लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लाया था, सो राजा के दूत उसे पकड़कर ले गये हैं। अब सब मालूम पड़ जायेगा। जब जेल की हवा खायेगा, बहू से यह वचन सहन नहीं हुआ। रोती-रोती माता के मन्दिर में गई और कहने लगी-माता! तुमने यह क्या किया? हंसाकर क्यों रुलाने लगीं। माता बोली-पुत्री! तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है। इतनी जल्दी सब बातें भुला दीं। वह कहने लगी-माता! भूली तो नहीं हूं न कुछ अपराध किया है,

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( Santoshi Mata vrat katha )

मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया। मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिये, मुझे क्षमा करो मां। मां बोली-ऐसी भी कहीं भूल होती है। वह बोली-मां! मुझे माफ कर दो मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी। मां बोली-अब भूल मत करना। वह बोली-अच्छा माँ! अब भूल नहीं होगी, अब बताओ वे कैसे आवेंगे? मां बोले-पुत्री! जा तेरा मालिक तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा। वह निकली, रास्ते में पति आता मिला। उसने पूछा-तुम कहां गये थे? वह कहने लगा-इतना धन जो कमाया है उसका टैक्स राजा ने मांग था, वह भरने गया था। वह प्रसन्न हो बोली-भला हुआ,अब घर चलो। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली-मुझे माता का उद्यापन करना है। पति ने कहा-करो! वह फिर जेठ के लड़कों से भोजन को कहने लगी। जेठानी ने एक दो बातें सुनाई और लड़के को सिखा दिया कि तुम पहले ही खटाई मांगना। लड़के गये खाने से पहले ही कहने लगे हमें खीर खाना नहीं भाता, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो। बहू बोली-खटाई खाने को नहीं मिलेगी खाना हो तो खाओ। यह कहकर ब्राह्मणों के लड़के लाकर भोजन कराने लगी। यथाशक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया, इससे सन्तोषी माता प्रसन्न हुई। माता की कृपा होते ही नवें मास उसको चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ।

Santoshi Mata vrat katha ।। व्रत पूजन व उद्यापन की विधि

( Santoshi Mata vrat katha )

पुत्र को लेकर प्रतिदिन माता जी के मन्दिर को जाने लगी। मां ने सोचा कि रोज आती है आज क्यों न मैं ही उसके घर चलूं । इसका आसरा देखू तो सही। यही विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया। गुड़ और चने से सना मुख ऊपर से सूंड के समान होंठ उस पर मक्खियाँ भिन-भिना रहीं हैं। दहलीज में पैर रखते ही उनकी सास चिल्लाई, देखो रे! कोई चुडैल डाकिनी चली आ रही है। लड़कों इसे भगाओ नहीं तो किसी को खा जायेगी। लड़के डरने लगे, चिल्लाकर खिड़की बन्द करने लगे, बहू रोशनदान से देख रही थी। प्रसन्नता से पगली होकर चिल्लाने लगी, आज मेरी माता मेरे घर आई है। यह कहकर बच्चे को दूध पिलाने से हटाती है, इतने में सास का क्रोध फूट पड़ा। मरी रांड! इसे देखकर कैसे उतावली हुई जो बच्चे को पटक दिया। इतने में मां के प्रताप से जहां देखो वहां लड़के ही लड़के नजर आने लगे। बहू बोली-मां जी! मैं जिनका व्रत करती हूं यह वही सन्तोषी माता हैं । इतना कह झट से सारे घर के किवाड़ खोल दिये। सबने माता के चरण पकड़ लिये और विनती कर कहने लगे-हे माता हम मूर्ख हैं, हम अज्ञानी हैं , तुम्हारे वत की विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है। हे माता! आप हमारे अपराध को क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। हे माता! जी बहू को जैसा फल दिया वैसा सबको दे। जो यह कथा सुने या पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो। बोलो सन्तोषी माता की जय।

दोहा– ग्रन्थ करोड़न में कहा है ये सबका सार । ब्रह्मा सत्य जग झूठ है जीवन ही ब्रह्म निहार॥
जीव से ही जीवित जगत, माया खेलत खेल।ब्रह्म रूप पहिचान लो कटे जगत् की जेल ॥ई

( श्री सन्तोषी माता की आरती )

जय सन्तोषी माता जय सन्तोषी माता।अपने सेवक जन को सुख सम्पति दाता ॥ जय० ॥
गेरू लाल छटा छवि बनद कमल सोहै । मन्द हंसत करुणामयी त्रिभुवन मोहे ॥ जय०॥
सुन्दर चीर सुनहरी मां धारण कीन्हों। हीरा पन्ना दमके तन सिंगार लीन्हों।। जय० ॥

स्वर्ण सिंहासन पर बैठी चंवर दुरे प्यारे ।धूप, दीप नैवेद्य, मधुमेवा भोग धरे न्यारे॥ जय० ॥

गुड़ अरु चना परमप्रिय तामें सन्तोष कियो। सन्तोषी कहलाई भक्तन विभव दियो ।। जय० ॥

शुक्रवार प्रिय मानत आज दिवस सोही। भक्त मण्डली आई कथा सुनत मोही॥ जय० ॥

भक्ति भावमय पूजा अंगीकृत कीजै। जो मन बसै हमारे इच्छ फल दीजै।। जय०।।

दुखी, दरिद्री, रोगी सकट मुक्त किए। बहु धन धान्य भरे घरसुख सौभाग्य दिए॥ जय०॥

ध्यान धरो जाने तेरो मनवांछित फल पायो।पूजा कथा श्रवण कर घर आनन्द आयो।। जय०॥

गहे की लज्जा रखिये जगदम्बे । संकट तू ही निवारे दयामयी अम्बे।। जय०॥

सन्तोषी माता की आरती जो कोई जन गावे। ऋद्धि-सिद्धि सुख सम्पति जी भरके पावे॥ जय० ॥

( माता को भोग लागने के सयम की विनती )

भोग लगाओ मैया योगेश्वरी भोग लगाओ मैया भुवनेश्वरी। भोग लगाओ माता अन्नपूर्णेश्वरी मधुर पदार्थ मन भाए।
थाल सजाऊँ खाजा खीर प्रेम सहित विनती करूं धर धीर। तुम माता करुणा गम्भीर भक्त चना गुड़ प्रिय पाएं।
शुक्रवार तेरो दिन प्यारो कथा में पधारो दुःख टारो। भाव मन में तेरो न्योरो मनमानै सुख प्रगटाये।

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( सन्तोषी माता का हिंडोला )

1. झूलो झूलो सन्तोषी मां सोने का पालना, मुझ गरीब की टूटी झोंपडियां, गुजर करूं ऐसी राम कठरिया॥झूलो० ॥

2. आओ-आओ सन्तोषी मां भोली मेरी भावना ॥झूलो० ॥ग्वालबाल तेरे गैया चरावें, ते नाम लेकर घर को आवें। देखो-देखो सन्तोषी मां की साधना॥झूलो०॥

3. एक ग्वाल चरावै, तेरी पदेिख परचैया। पीछे-पीछे चला मन लाय बीच भया आवना॥झूलो० ॥

4. तेरे मन्दिर पर पहुंचा आय अ रज छावना। देखो तो जहां सुन्दर नारी, कोटि सूर्य सम तेज उजारी; मन्दिर में आया क्यों ग्वाल बाल कहा तेरी चाहना।। झूलो० ।।

5. तेज निहार ग्वाल घबरायो, मुख ते बोलत वचन न आयो। कहत मुख आई बात मेहनताना दिलवा॥झूलो० ॥

6. थाल में भरकर चावल लाई,देख ग्वाल मन कुढन समाई। कहा दीनों ये मोहि आपुहि मौज उड़ावना ॥झूलो० ॥

7. नीचे तलेहटी बावड़ी पे आयो जल में खोल सब धान गिरायो। कपड़े में सोने की कलियाँ देख पछतावना ॥झूलो०॥

8. भाग में गरीबी लिखी विधाता नेत्र पान अपराधसाधना । मन्दिरलौट तब आया द्वार बन्द पावना ॥झूलो०॥

9. झूला को झूलनो पर सुनाई जापै कृपा सो सुने सुखदाई, सोना मिला में दिखलान जाके सांची भावना झुलो० ॥

10. अपने लाल का जंडूला उतारें, माता जी सर्व संवारे वे होय निहाल चरण राखे चाहना झूलो०॥

( माता की मंगल कामना का भजन )

मंगल का वास मंगल का वास, माता तेरे मन्दिर में। मंगल का वास, माता तेरे मंदिर में। नकलजय अन्नपूर्णेश्वरी जय जगदीश्वरी जय मां सन्तोषी जय परमेश्वरी। सबकी पूर्ण करे मैया आस, माता तेरे मन्दिर में०॥धूप का धुआँ दशों दिशा छायो, विश्व अमंगल शोक नसायो। भक्तन के मन
में उल्लास,माता तेरे मन्दिर में० ॥ झिलमिल झिलमिल दीपकमाला,तीन लोक में सुख छायो उजाला। निर्मल ज्योति प्रकाश-माता तेरे मन्दिर में० ॥ कण्ठ सोहे मैया फूलों की माला, सरस गन्ध भ्रमत मतवाला ।महक रहे भूमि आकाश, माता तेरे मंदिर में० ॥तूही मां बहुचरातूही मां तुलसी जी तिलोत्तमा । लक्ष्मी तू रमापति निवास, माता तेरे मन्दिर में० ।।अम्बा जी मलके बालाजी चटकें ललिताजी झूमें भवानी जी घूमें जोगिनी नाचे हैं उनचास, माता तेरे मन्दिर में० ।। तेरे मंदिर में घण्टा ढोल मंजीरा शंख, नगाड़े बाजे। भक्त करें जय जयकार, माता तेरे मन्दिर में० ॥ आठपहर अमृतवरसे पान करेसो बड़भागी हर्षे । पीके रस वह हो जाए निहाल, माता तेरे मन्दिर में० ।। कुमकुम की बरखा होवे सुखदायी, रहे हरदम अरुनाई। नाचे नरनारी दै दै के ताल, माता तेरे मन्दिर में भगत मनोरथ करें भवानी,आदि शक्ति अम्बे कल्याणी । गावें तिहार गुण विशाल । माता तेरे मन्दिर में०॥

 

(सन्तोषी माता की आरतियां)

मैं तो आरती उतारूं रे, संतोषी माता की जय जय सन्तोषी माता जय जय माँ ।
बड़ी ममता है, है बड़ा प्यार मां की आंखों में । बड़ी करुणा माया दुलार मां की आंखों में ।
क्यूं न देखू मैं बारम्बार, मां की आँखों में। दिखे हर घड़ी नया चमत्कार मां की आँखों में।
नृत्य करूं झूम-झूम झम झमाझम झूम झूम, झांकी निहारू रे ओ प्यारी-प्यारी झांकी निहारू रे।
सदा होती है जय जयकार, मां के मन्दिर में। नित झांझर की होये झनकार मां के मन्दिर में ।।
सदा मंजीरे करते पुकार, मां के मन्दिर में । दीखे हर घड़ी नया चमत्कार मां के मन्दिर में।
दीप धरूं धूप धरूं, प्रेम सहित भक्ति करूं, जीवन सुधारू रे ओ प्यारा-प्यारा जीवन सुधारूं रे
यहां वहां जहां तहां, मत पूछो कहां-कहां, है सन्तोषी मां, अपनी सन्तोषी मां, अपनी सन्तोषी मां।
जल में भी, थल में, चल में, अचल में भी, अतल वितल में भी, मां……. अपनी सन्तोषी मां।

बड़ी अनोखी चमत्कारिणी ये है अपनी माई। राई को परवत कर सकती है परवत को राई।
द्वार खुला-दरबार खुला है आओ बहन भाई। इसके दर पर कभी दया की कमी नहीं आई।
सुनो रे भाई, पल में निहाल करें मां। तुल कमाल करें मां… अपनी सन्तोषी मां….
इस अम्बा में जगदम्बा में गजब की है शक्ति। अपना जीवन सौंप दो इसको पालो रे मुक्ति।
सुख सम्पत्ति दाता ये मां क्या नहीं कर सकती। सुनो रे भाई क्या नहीं कर सकती॥
बिगड़ी बनाने वाली, दुखड़े मिटाने वाली, कष्ट हटाने वाली मां…. अपनी सन्तोषी मां…
गिरजा सुत गणपति की बेटी ये है बड़ी भोली, देख-देखकर इसका मुखड़ा हरएक दिशा डोली,
आओ रे भक्तों ये माता है सबकी हमजोली। जो मांगोगे तुम्हें मिलेगा भर लो रे झोली।
उज्जवल-उज्जवल निर्मल-निर्मल सुन्दर मां, अपनी
संतोषी मां…….. यहां वहां जहां तहां मत पूछो कहां-कहां है संतोषी मा.. बड़ी मन भावन निर्मल

पावन प्रेम की ये प्रतिमा उसी देवी की दया से हमने अद्भुत फल देखा
हो पल में पलट दे ये भक्तों की बिगड़ी भाग्य रेखा, बड़ी बलशाली ममता वाली जगजननी मां
यह माता ममता की भूखी भक्ति इसे बांधे ही प्रेम पूर्वक जो कोई पूजे मनवांछित फल पावे।
मंगल करनी, चिन्ता हरणी, दुःख भंजन ये मां। अपनी संतोषी मां…..

Shiv tandav stotram ।। हिन्दी अर्थ सहित

(श्री कृष्ण जी का पालना)

कन्हैया झूल पालना मैं वेदन में सुन आई। मैं वेदन में सुन आई, मैं ब्रह्मा से सुन आई। कन्हैया । काहे । को तेरो पालना काहे के लगे फुन्दना ।। कन्हैया॥ सोने को तेरो बनो पालनो अरी सखी रेशम के लगे फुन्दना। कन्हैया॥ कौन गांव तेरो परो पालना अरे कहु कौन भवन सुख सालना। कन्हैया ॥ गोकुल 5 गांव मेरो परो पालना अरी सखी सुन नन्दमहल सुख सालना। कन्हैया।। कौन पेड़ तेरो परो पालना अरे लाला तोही कौन झुलावे झूलना। कन्हैया॥ कदम की डार झूले मन मोहन पालनो, अरी सखी नन्दरानी झुलावे झूलना।। कन्हैया॥

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( माता की कुमकुम पत्रिका )

अम्बे तेरे हैं नाम हजार कौन लिखिये कंकोत्री रोज रोज बदले मुकाम तेरे माता लिखके भेजूं कौन
5 गाम॥१॥ ज्वाला जी में ज्वाला कहावे, नगर कोट में पूजा तू पावे। कोटि बाहु करती है काम, कौन
16 नाम।। २।। विन्ध्याचल में विन्ध्यवासिनी, मायापुरी में चण्डी आसनी । काली कलकत्ते में नाम, कौन
गाम ।। ३।। सम्भलपुरी बहुचरा कहावे पावागढ़ दुर्गा गहलावे। गंगा यमुना तेरे धाम, कौम गाम ॥ ४॥
कोटेश्वर में सरस्वती तू है, राजनगर भद्रकाली भी तू है। बम्बई में महालक्ष्मी नाम, कौन गाम ॥ ५॥ तू
ही करौली में केला कहावे तू ही मीनाक्षी मदुरा में छावे, ढूंढूं कौन धाम, कौन गाम ॥६॥ जहां होय
* माता वहां से तू आजा, मुझ शरण आये के कारण बना जा। पूजूं श्रद्धा से तेरे पांव, कौन धाम ॥७॥

 

( Santoshi Mata vrat katha )

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